Friday 3 June 2011

गुडिया

हूंक उठी दिल में अजीब सी
भीग गया तन बिन बारिश के
हाहाकार मच गयी रगों में
सपने बुनते लावारिश से
सोच रहा क्या-क्या लिख दूं मै
बध कर जिसमे कैद रहे वो
जब भी करवट बदले पन्ने
हर करवट के बाद दिखे वो
पर दिल तो अभ भी कच्चा है
जैसे छोटा सा बच्चा है
महसूस करे हर लम्हो को
पर बोल न पाए अधरों से
नाकाम सी कोशिश करता मै
यादों को उसमे में भरता मै
जिससे जादू की वो पुडिया
अधरों पर आकर चहक सके
जिसमे मेरी प्यारी गुडिया
पन्नो पर आकर लिपट सके
कुछ बयां कर सकूं दिल में जो
बातें हैं और रहेंगी भी
बध सकूं उन लम्हों को
जो बीते हैं,अनबीते भी
पर लगता है पागल हूँ मै
कोशिश ही ऐसी करता हूँ
उसका वह सीधा सा स्वाभाव
टेढ़े अक्षर से लिखता हूँ
माफ़ करो प्रियतम मेरे
इसमें मेरा कुछ दोष नहीं
जब तुम ही इतने अच्छे हो
न लिखने का अफ़सोस नहीं
जब टेढ़े हो जाओगे तुम
टेढ़े शब्दों में बधुंगा
कविताओं में क्या रक्खा है
लिख महाकाव्य दिखला दूंगा